नदी उमड़ी हुई है गाँव वालो, बचाना हो तो, अपना घर बचा लो …

नदी उमड़ी हुई है गाँव वालो, बचाना हो तो, अपना घर बचा लो …

साहित्य के संसार में एक ऐसा वृक्ष है, जिसने ग्लैमर पसंद न होने के कारण स्वयं को बस्ती और जंगल से भी दूर ऐसे एकांत में समेट लिया है, जहाँ सिर्फ वही है। साहित्य के संसार में उड़ते हर पक्षी को वृक्ष के बारे में पता है, हर पक्षी उसकी साखों पर बैठना चाहता है, उसके सुगंधित वातावरण में चहचहाना चाहता है पर, जंगल और बस्ती से भी दूर कहीं लहलहा रहे वृक्ष तक पक्षी चाह कर भी नहीं पहुंच पाते, जिससे वृक्ष के अद्भुत गुणों का लाभ संसार को नहीं मिल पा रहा है।

बात हो रही है गीत और गजल के सशक्त हस्ताक्षर नरेंद्र गरल की। 10 मार्च 1950 को जन्मे नरेंद्र गरल वर्ष- 1967 से गीत और गजल लिख रहे हैं। उत्तर प्रदेश के साथ मध्य प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल ही नहीं बल्कि, समूचे हिंदी भाषी क्षेत्र में मंच पर काव्य पाठ भी करते रहे हैं। पंडित श्याम नारायण पांडेय, गोपाल दास “नीरज”, डॉ. कुंवर बेचैन, सोम ठाकुर, डॉ. वशीर बद्र, डॉ. राजेश दीक्षित, डॉ. ब्रजेन्द्र अवस्थी और डॉ. उर्मिलेश जैसे महारथियों के बीच मंच साझा करते रहे हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” और महादेवी वर्मा जैसी विभूतियों का सानिध्य पा चुके हैं। रामपुर स्थित आकाशवाणी केंद्र की स्थापना होने से लेकर आज तक वहां काव्य पाठ कर रहे हैं। बॉलीवुड से उन्हें कभी गीत लिखने का ऑफर मिल चुका है, ऐसे नरेंद्र गरल से सवाल किया गया कि उन्होंने अब तक कितनी गजल और गीत रच लिए हैं?, इस पर उनका बच्चे की तरह जवाब था कि संख्या तो नहीं पता लेकिन, पांडुलिपियों का वजन चार-पांच किग्रा से ज्यादा ही होगा।

रचनाओं को पुस्तक के रूप में संकलित क्यों नहीं किया?, इस पर उन्होंने कहा कि वे प्राचीन साहित्यकारों के साथ हाल-फिलहाल हुए बलवीर सिंह “रंग” से बेहद प्रभावित हैं, इनकी रचनायें प्रकाशित नहीं हुईं लेकिन, सबको याद हैं, साथ ही वे आध्यात्मिक भी हैं, वे स्वभाविक रचनाकार हैं, सो स्वभाव को पुस्तक बनाने का ख्याल ही नहीं आया। बोले- अब मन कर रहा है, वे 2019 में पांडुलिपियों को पुस्तक का रूप देना चाहते हैं।

साहित्य के संसार के वट वृक्ष रूपी नरेंद्र गरल की जड़ें बदायूं जिले के कस्बा बिल्सी में हैं, प्रथम श्रेणी में हिंदी से एमए उत्तीर्ण करने के बाद बिल्सी के ही जैन इंटर कॉलेज में वर्ष- 1974 में प्रवक्ता नियुक्त हो गये पर, उनकी संस्कृत और अंग्रेजी पर भी मजबूत पकड़ है, सो तीनों भाषाओँ को पढ़ाने में जुट गये। पठन-पाठन और सृजन में जुटे रहने के कारण भी मंच पर उन्हें जितना समय बिताना चाहिए था, उतना नहीं बिता पाए। वर्ष- 2011 में दायित्व से निवृत्त हो गये हैं, जिससे अब वह करना चाहते हैं, जो पूरे मन से अब तक नहीं कर पाए, वे अब गीत और गजलों को पूरी तरह जीना चाहते हैं, उनका उत्साह देख कर लगता है कि वे सेवानिवृत्त नहीं बल्कि, अब किशोर हुए हैं, उनके प्रेम के भाव आध्यात्म की चादर लपेट कर साकार होते हैं तो, लगता है कि इस ग्रंथ को आँख बंद कर सुनते ही रहें।

नरेंद्र गरल से गीत/गजल सुनाने का आग्रह किया गया तो, वे भोले से बच्चे की तरह सुनाने लगे, उनका गीतकार जागृत हुआ तो, लगातार सुनाते ही रहे। गीत और गजल में सबसे अच्छी बात यह होती है कि यह जब पढ़ा जाये, जिस दौर में सुना जाये, उस समय और उस दौर का ही लगता है, उन्होंने स्वभाविक अंदाज में सुनाया कि नदी उमड़ी हुई है गाँव वालो, बचाना हो तो, अपना घर बचा लो … । उनकी यह रचना आज के राजनैतिक वातावरण पर सटीक बैठती है, जबकि उन्होंने इसे काफी पहले लिखा था। गौतम संदेश नरेंद्र गरल की रचनाओं को पाठकों के सामने भविष्य में भी लाता रहेगा।

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