वहाबी होने के साथ पाखंडी भी हैं पूर्व सांसद सलीम इकबाल शेरवानी

वहाबी होने के साथ पाखंडी भी हैं पूर्व सांसद सलीम इकबाल शेरवानी

बदायूं लोकसभा क्षेत्र से सलीम इकबाल शेरवानी पांच बार सांसद रहे हैं। केंद्र में विदेश राज्यमंत्री और स्वास्थ्य राज्यमंत्री भी रह चुके हैं, लेकिन इनके नाम का जिला अस्पताल में एक पत्थर तक नहीं लगा है, जबकि केंद्रीय मंत्री अपने संसदीय क्षेत्र में अपने विभाग का मुंह खोल देता है। जो मेडिकल कॉलेज सलीम इकबाल शेरवानी को दो-ढाई दशक पहले बनवा देना चाहिए था, वह सांसद धर्मेन्द्र यादव के प्रयासों से अब बन रहा है। विकास की दृष्टि से शून्य नंबर मिलने के बावजूद सलीम इकबाल शेरवानी पुनः चुनाव लड़ने का साहस कर रहे हैं, लेकिन लोग अब जान गये हैं कि वे वहाबी होने के साथ पाखंडी भी हैं।

जी हाँ, सलीम इकबाल शेरवानी वहाबी हैं, जो न सुन्नियों को मानते हैं और न ही शिया को, दोनों को काफिर और मुशरिक कहते हैं। वहाबी होने के कारण ही सलीम इकबाल शेरवानी कभी छोटे-बड़े सरकार की दरगाह पर नहीं जाते, इस सब पर बदायूं के उदार और भले लोगों ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। मुलायम सिंह यादव के कंधों पर सवार होने के कारण सलीम इकबाल शेरवानी निरंतर सांसद चुने जाते रहे, लेकिन न विकास किया, न यहाँ से कोई मोह है, न यहाँ के लोगों को अपेक्षित सम्मान देते हैं, तब लोगों ने गंभीरता से विचार करना शुरू किया, तो खुलासा हुआ कि सलीम इकबाल शेरवानी वहाबी हैं।

जो छोटे-बड़े सरकार को नहीं मानता, उससे बदायूं के लोग बात तक करना पसंद नहीं करते। सलीम इकबाल शेरवानी के बारे में खुलासा होने के कारण लोग तेजी से दूरी बना गये। पिछले दिनों सलीम इकबाल शेरवानी बदायूं दौरे पर आये, तो लोगों ने ध्यान तक नहीं दिया, इसका अहसास होने के बाद शॉल और घड़ियों का इंतजाम किया गया और प्रचार किया गया की सलीम इकबाल शेरवानी शॉल और घड़ियाँ बांटेंगे, जिन्हें लेने को भी अँगुलियों पर गिनने लायक लोग जमा नहीं हुए। पांच बार सांसद चुने गये व्यक्ति को भीड़ जुटाने को शॉल और घड़ी का सहारा लेना पड़े, तो यह सिद्ध करने को काफी है कि लोग उनसे किस हद तक दूरी बना चुके हैं।

पिछला चुनाव कांग्रेस के टिकट पर सलीम इकबाल शेरवानी ने पड़ोस के क्षेत्र आंवला से लड़ा था, लेकिन तब तक वहां भी यह खबर आम हो चुकी थी कि वे वहाबी हैं, इसीलिए उन्हें 25% मुस्लिमों ने भी वोट नहीं दिए, जिससे बुरी तरह हार गये और फिर वहां भी पलट कर नहीं गये। बदायूं के लोग ही सर्वाधिक भले और भोले हैं, सो यहीं पुनः लौट कर वापस आ गये हैं और दावा कर रहे हैं कि वे अगला चुनाव यहीं से लड़ेंगे। सलीम इकबाल शेरवानी जब सांसद रहे थे, तब कासगंज विधानसभा क्षेत्र बदायूं लोकसभा क्षेत्र का ही हिस्सा था। पिछले दिनों तिरंगा यात्रा को लेकर कासगंज में बवाल हुआ, लेकिन पांच बार प्रतिनिधित्व करने व दो बार हारने वाले सलीम इकबाल शेरवानी किसी को मरहम तक लगाने नहीं गये, क्योंकि अब वहां के वोट नहीं चाहिए। बदायूं के उत्तर में आंवला है और दक्षिण में कासगंज, दोनों को ऐसे भुला दिया, जैसे जानते ही नहीं हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि बदायूं से इतना कुछ लेने के बाद बदायूं को दिया क्या है?

सलीम इकबाल शेरवानी बदायूं से चुनाव लड़ने का दावा भले ही कर रहे हैं, लेकिन अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि सपा-कांग्रेस का गठबंधन होगा, या नहीं। गठबंधन हुआ, तो क्या वे धर्मेन्द्र यादव की जगह कांग्रेस के खाते से खुद टिकट ले पायेंगे। यह भी बता दें कि आबिद रजा के मुकाबले वे अपने बेटे साद शेरवानी को बदायूं विधानसभा क्षेत्र से टिकट दिलाना चाहते थे, पर उन्हें कांग्रेस में ही सफलता नहीं मिली थी, ऐसे में वे समाजवादी पार्टी की ओर से भी निर्णय कैसे ले सकते हैं?

खैर, पांच बार के सांसद सलीम इकबाल शेरवानी का बदायूं में कहीं छप्पर तक नहीं पड़ा है, पिछले चुनाव में भी यह मुद्दा उछला, तो बदायूं रोड पर एक मकान उन्होंने खरीद लिया था, जो चुनाव हारने के बाद मुनाफा लेकर बेच दिया, इस पर उनका कहना है कि मकान शुभ नहीं था, इसलिए बेच दिया। जो व्यक्ति सुन्नी-शिया को नहीं मानता, जो व्यक्ति छोटे-बड़े सरकार को नहीं मानता, जो व्यक्ति किसी भी मजार को नहीं मानता, जो व्यक्ति पैगंबर को नहीं मानता, वह इतने बड़े पाखंडी हैं कि मकान को अशुभ मानते हैं, उनके प्रतिनिधि रहे अनवर का कहना है कि सलीम इकबाल शेरवानी छोटे-बड़े सरकार पर कई बार गये हैं, वे बरेली दरगाह में भी गये हैं और आगे भी जाते रहेंगे।

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