अमेरिका और तालिबान के अनैतिक समझौते से भारत को हो सकता है नुकसान

अमेरिका और तालिबान के अनैतिक समझौते से भारत को हो सकता है नुकसान

अमेरिका शुद्ध व्यवसायी देश है, जो सिर्फ अपने हित के बारे में ही सोचता है, उसे किसी अन्य राष्ट्र की शांति और समृद्धि से बहुत ज्यादा मतलब नहीं होता। तालिबानों से समझौता कर के अमेरिका ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया कि उसे भारत की भी चिंताओं से कोई मतलब नहीं है। कतर के दोहा में शनिवार को अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौते पर मुहर लग गई, जिसके अनुसार अमेरिका अगले 14 महीनों में अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुला लेगा। हालाँकि समझौते के समय भारत सहित 30 देशों के प्रतिनिधि मौजूद थे लेकिन, यह भी बता दें कि अमेरिका और तालिबानों के बीच समझौता कराने में पाकिस्तान की आईएसआई की मुख्य भूमिका मानी जा रही है।

तालिबान का जनक पाकिस्तान ही है। पाकिस्तान के मदरसों में तालिबान का जन्म हुआ तो, सऊदी अरब धन देने लगा, जिससे तालिबान बढ़ता ही चला गया। 1980-90 के दशक में अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेना वापस जाने लगी तो, स्थानीय गुटों में भिड़ंत होने लगी थी, इस परिस्थिति में पश्तून तालिबान से प्रभावित हुए, उनका नेतृत्व मिलते ही 1994 में अफगानिस्तान में तालिबान खुल कर ताडंव करते हुए दिखने लगा था।

तालिबान ने भ्रष्टाचारी और लापरवाहों को दंडित करना शुरू किया था, इसीलिए पाकिस्तानी जनता के बीच तालिबानी हीरो के रूप में उभर कर सामने आये। अफगानिस्तान में पाकिस्तान वाली लोकप्रियता ही काम आई। धन, हथियार और समर्थन मिलने के बाद तालिबान आतंक की फैक्ट्री बन गया। 1995 में तालिबान ने ईरान सीमा से लगे अफगानिस्तान के हेरात प्रांत पर कब्जा कर लिया। एक वर्ष बाद तालिबान ने बुरहानुद्दीन रब्बानी सरकार को सत्ता से हटाकर अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर भी कब्जा जमा लिया। 1998 तक 90% अफगानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण हो गया था। तालिबानी सरकार को पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने मान्यता दी थी।

इस सबके बीच ओसामा बिन लादेन का अलकायदा आया, जिसने अमेरिका के न्यूयॉर्क में 11 सितंबर 2011 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला कराया, इसके बाद अमेरिका समर्थित गठबंधन सेना ने 2011 में अफगानिस्तान पर हमला कर दिया था। ओसामा बिन लादेन के संगठन अलकायदा की गतिविधियाँ अफगानिस्तान से ही संचालित होती थीं। अमेरिका के पीछे पड़ते ही संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब पीछे हट गये एवं अंत में पाकिस्तान भी किनारा गया। 2 मई 2011 को पाकिस्तान के एबटाबाद में अमेरिका के नेवी सील कमांडो ने ओसामा बिन लादेन को मार गिराया था लेकिन, अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में फंसी हुई थी, इसे पिछले चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप ने बड़ा मुद्दा बनाया था, इस पर उन्हें व्यापक जन-समर्थन भी मिला था। अमेरिका अफगानिस्तान से स-सम्मान बाहर निकलने का प्रयास कर रहा था, इस सबमें पाकिस्तान की आईएसआई मुख्य भूमिका निभा रही थी। अमेरिका और तालिबान के बीच में घुसने के लिए पाकिस्तान ने तालिबान के उप-संस्थापक मुल्ला बारादर को जेल से रिहा भी किया था।

स्पष्ट है कि समझौते से सबसे बड़ा लाभ तालिबान का है, पाकिस्तान का है और सम्मान बचाने वाले अमेरिका का है। समझौता कराने के बदले निश्चित ही पाकिस्तान ने कोई शर्त भी रखी होगी, जिसका खुलासा आने वाले समय में ही हो सकेगा जबकि, यह समझौता पूरी तरह से अनैतिक है, क्योंकि समझौता आतंकियों से किया गया है। अफगानिस्तान की सरकार को समझौते में शामिल नहीं किया गया, वह समझौते का विरोध भी कर रही थी। राष्ट्रपति अशरफ गनी ने कहा था कि बेगुनाहों की हत्या करने वाले समूह से शांति समझौता निरर्थक है, क्योंकि तालिबान अफगान सरकार को नहीं मानता। अब समझौते के अनुसार अमेरिकी सेना वापस जाते ही तालिबान अफगानिस्तान के सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ सकता है, जिससे गृह युद्ध होना तय है, इस अवस्था में पाकिस्तान हावी हो जायेगा, जो भारत के लिए अशुभ ही कहा जायेगा।

इसके अलावा नरेंद्र मोदी सरकार ने पश्चिम एशिया में भारत का वर्चस्व बढ़ाने की नीयत से अफगानिस्तान में अरबों डॉलर खर्च कर दिए हैं। अफगानिस्तान में कई बड़ी परियोजनायें पूरी हो चुकी हैं और कई परियोजनायें पूरी होने वाली हैं। भारत 116 सामुदायिक विकास परियोजनाओं पर काम कर रहा है, जिन्हें अफगानिस्तान के 31 प्रांतों में क्रियान्वित किया जाएगा। शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, नवीकरणीय ऊर्जा, खेल अवसंरचना और प्रशासनिक अवसंरचना के साथ भारत-काबुल के लिए शहतूत बांध और पेयजल परियोजना पर भी काम कर रहा है। अफगान शरणार्थियों के पुनर्वास को प्रोत्साहित करने के लिए भी नानगरहर प्रांत में कम लागत से घरों के निर्माण का काम भी प्रस्तावित है। बामयान प्रांत में बंद-ए-अमीर तक सड़क संपर्क, परवान प्रांत में चारिकार शहर के लिए जलापूर्ति तंत्र और मजार-ए-शरीफ में पॉलीटेक्नीक के निर्माण में भी भारत सहयोग दे रहा है। कंधार में अफगान राष्ट्रीय कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना में भारत सहयोगी है। भारत ने अफगानिस्तान को तीन अरब डॉलर की मदद दी है, इस रकम से वहां संसद भवन, सड़क और बांध बनाये गये हैं।

बीपी गौतम

उधर अफगानिस्तान, मध्य एशिया, रूस और यूरोप के देशों से व्यापार और संबंधों को मजबूती देने के उद्देश्य से ईरान के चाबहार पोर्ट के विकास में भारत ने बड़ा निवेश किया है, इस परियोजना को चीन की वन बेल्ट वन रोड परियोजना का करारा जवाब माना जा रहा था, ऐसे में तालिबान की शक्ति बढ़ी तो, निश्चित ही सबसे बड़ा नुकसान भारत को ही होगा। पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक पटल पर भारत की स्थिति में सुधार हुआ है, एशिया में भारत की शक्ति बढ़ी है। अफगानिस्तान का साथ मिलता रहता तो, निश्चित ही भारत आने वाले कुछ वर्षो में एशिया की बड़ी ताकतों में से प्रमुख हो जाता। अमेरिका की जल्दबाजी से भारत को आर्थिक और राजनैतिक नुकसानों के साथ सुरक्षा की दृष्टि से भी बड़ा नुकसान हुआ है।

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